28 मार्च 2012
लखनऊ | "चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देस जहां तुम चले गए..इस दिल पे लगा के ठेस कहां तुम चले गए।" मरहूम गजल गायक जगजीत सिंह की ये पंक्तियां यूं तो सभी की जुबान पर हैं लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश के लोग इन पंक्तियों को फिर से गुनगुनाने लगे हैं क्योंकि चुनाव के दौरान ताल ठोंक रहे बड़े राजनीतिक सूरमाओं का न तो कोई संदेश ही मिल रहा है और न ही यह पता चल पा रहा है कि वे किसके साथ अपनी हार का गम बांट रहे हैं।
सबसे पहले बात करते हैं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की मुखर नेता उमा भारती की। विधानसभा चुनाव के दौरान उमा ने ताबड़तोड़ 200 से ज्यादा जनसभाएं की थीं।
उमा शायद इसलिए भी उत्साहित थीं कि उन्हें इस बात का अहसास था कि पार्टी कमाल कर गई तो उत्तर प्रदेश में पार्टी की जिम्मेदारी सौंपे जाने के बाद अब मुख्यमंत्री की कुर्सी उनसे ज्यादा दूर नहीं है।
विधानसभा चुनाव को बीते 20 दिन से अधिक हो चुके हैं। प्रदेश के भाजपा नेता चिंतन बैठक कर हार का कारण तलाशने में जुटे हैं लेकिन मुख्यमंत्री पद की दावेदार नेता अब किस कोने में हार का गम भुला रही हैं, यह खुद पार्टी नेताओं को भी पता नहीं है।
पार्टी के एक नेता कहते हैं, "सुख के सब साथी, दुख में न कोय। चुनाव के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उमा को मुख्यमंत्री का दावेदार बताया था, जिससे वह उत्साहित थीं। अब हार के नाम पर की जा रही चिंतन बैठकों में कौन अपना माथा खपाना चाहेगा।"
उमा के बाद बात कांग्रेस के युवराज और राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी की बात करें तो हार के बाद वह शायद इस कदर टूट गए हैं कि अपनों के बीच आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।
कांग्रेस महासचिव ने चुनाव के दौरान पूरे प्रदेश में जबर्दस्त चुनावी अभियान चलाया था लेकिन उनकी पार्टी 28 सीटें ही जीत पाई।
कांग्रेस सूत्रों की मानें तो वह दिल्ली में बैठकर हार के कारणों और उत्तर प्रदेश में संगठन की कमजोरी पर मंथन कर रहे हैं, ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी को बड़े नुकसान से बचाया जा सके।
चुनाव के दौरान उमा ने भी राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका बाड्रा को 'बरसाती मेढक' ही करार दिया था।
बहरहाल, इन दो राष्ट्रीय पार्टियों के बीच बात विधानसभा चुनाव के दो अन्य महत्वपूर्ण नेताओं की करें, जिन्होंने दावे तो बड़े किए थे लेकिन नतीजा सिफर रहा।
राष्ट्रीय क्रांति पार्टी (राष्ट्रवादी) के संरक्षक कल्याण सिंह और राष्ट्रीय लोकमंच के संरक्षक अमर सिंह के सामने तो अब अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। दोनों नेताओं के लिए तब यही कहा जा रहा था, "माया मिली न राम (मुलायम)।"
कल्याण इस गम में डूबे हुए हैं कि उनकी पार्टी को इस चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली। और तो और, अपनी बहू प्रेमलता और बेटे राजवीर की हार भी वह नहीं टाल पाए।
सूत्रों की मानें तो 'बाबूजी' इस समय इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि 300 से अधिक सीटों पर लड़ने वाली पार्टी को आखिर एक भी सीट क्यों नहीं मिली।
बात अब सपा से खफा अमर सिंह की। उनकी हालत भी भीगी बिल्ली वाली हो गई है। आजम खान को हराने का सपना पालने वाले अमर सिंह के खिलाफ आजम ने पूरी तरह से मोर्चा खोल दिया है, तो आजम के खिलाफ लगातार मोर्चा खोलने वाला यह क्षत्रप इस समय क्या कर रहे हैं, किसी को पता नहीं।
बताया जाता है कि इस बीच लालबत्ती वाली गाड़ी से रामपुर पहुंचे आजम ने अमर और जया प्रदा को काफी खरीखोटी सुनाते हुए उनकी औकात तक बता डाली।
दलितों की मसीहा मानी जाने वाली मायावती के दिल में दलितों के प्रति प्यार शायद कुर्सी पाने तक ही रहता है। सत्ता हाथ से खिसकने के बाद प्रदेश के दलितों को उनके हाल पर छोड़कर खुद दिल्ली चली जाती हैं। मायावती का इतिहास यही रहा है कि वह विधानसभा में कभी भी विपक्ष की नेता के रूप में बैठना पसंद नहीं करती हैं।
उधर, छोटे चौधरी के नाम से मशहूर जयंत चौधरी ने भी सांसद रहते हुए मथुरा जिले की मांट विधानसभा सीट से दावेदारी पेश की थी और जीते भी।
उनके मन में भी मुख्यमंत्री बनने की इच्छा थी लेकिन मुराद पूरी नहीं हुई तो एक महीने के भीतर ही उन्होंने मांट सीट से इस्तीफा देकर लोकसभा में ही रहना उचित समझा।
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अभयानंद शुक्ल कहते हैं, "अमर सिंह और कल्याण सिंह के राजनीतिक अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है।
इन दोनों नेताओं को नए सिरे से अपनी राजनीतिक जमीन तलाशनी होगी। असली नेता वही होता है जो हार के बाद भी आम जनता के बीच जाने का साहस जुटाता है।"
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